भारत में राजनीतिक निष्क्रियता


यकीनन भारत दुनिया के सबसे अधिक जीवंत लोकतांत्रिक देशों में से एक है। पर यह दुनिया के कुछ गिने चुने देशों में से एक है जहां एक 70 वर्षीय प्रधानमंत्री एक 80 वर्षीय राष्ट्रपति और लगभग उसी उम्र के कैबिनेट सहयोगियों के साथ आम तौर पर सत्तारूढ़ होता है। इतने पर भी हम अक्सर ये पाते हैं की इनमे से कई लोगों को सरकार चलाने या संसदीय प्रक्रियाओं/परम्पराओं की बहुत कम जानकारी होती है। यही स्थिति राज्यों की है जहां उम्रदराज़ क्षत्रप सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए हुए है। इसीलिए हम एक ऐसी स्थिति से रूबरू होते है जिस में 50 से अधिक आयु वाले लोगों को भी युवा नेता कहा जाता है जबकि दुसरे देशों में इसी आयु वर्ग के राजनेता सेवानिवृत्ति की स्थिति में पहुँच चुके होते हैं। क्षमता को उम्र के साथ जोड़ने का भारतीय नजरिया, उत्ताधिकार की परंपरा और व्यक्तित्ववाद भारत में लोकतंत्र के विकास में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं।   

सभी राजनैतिक दल इस बात से सिद्धान्तिक रूप से सहमत हैं कि राजनीति में युवाओं को अधिक अवसर देने की जरूरत है। लेकिन वरिष्ठ नेता ऐसा होने में हमेशा से एक बड़ी बढ़ा साबित होते रहे हैं। इसके अलावा ज़्यादातर ये देखा गया है कि एक बार सत्ता के उच्च शिखर पर पहुँच जाने के बाद कोई भी राजनेता अपने परिजनों और मित्रों को बढ़ावा देने लगता है। उसके सत्ता से दूर होने के पश्चात उसके बेटे, बेटियां और यहाँ तक कि दामाद भी उसकी जगह हासिल कर लेते हैं। इस तरह से परिवार का नाम लेकर उन लोगों  को सत्ता के शीर्ष स्तरों पर पहुँचने का मौक़ा मिल जाता है जिन्हें विधायी और प्रशाशनिक मामलों की कोई जानकारी नहीं होती। इन अनुचित प्रवृतियों से भारतीय लोकतंत्र में युवा रक्त और नए विचारों के प्रवाह में ठहराव आ जाता है।  

इस मुद्दे का दूसरा पहलू ये है कि कुछ लोग उच्च राजनीतिक पदों पर आसीन होने के लिए अनुभवी होने को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसके पक्ष में अपने तर्क देते हैं। उनका कहना हैं कि भारत के विशाल भू-भाग और भारी विविधता के कारण नीति निर्माताओं और प्रशासकों के सामने अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा जटिल चुनौतियाँ हैं। अब सवाल ये है कि क्या कोई ऐसा रास्ता है जिस से हम उन नेताओं की पौध तैयार कर सकें जिनमे युवावस्था और अनुभव का वंचित मिश्रण हो? कुछ सुझाव इस प्रकार हैं -

1.    भारत में विधायिका दो स्तरों पर विभाजित है - संघ और राज्य।   नगर निगमों और नगर निकायों को तीसरा स्तर बनाते हुए इन सभी स्तरों पर विधायी निकायों की सदस्यता अवधि को सीमित कर देना चाहिए।   यह अवधि अधिकतम 5  वर्ष के 4  कार्यकाल अथवा कुल 20  वर्ष (जो भी सदस्य पहले पूरा कर ले) की होनी चाहिए।
 
2.     इसी तरह कार्यपालिका को भी निम्नलिखित सात स्तरों में विभाजित किया जा सकता है -
  • राष्ट्रपति 
  • उपराष्ट्रपति 
  • प्रधानमंत्री 
  • केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य (राज्य स्तर के मंत्री की श्रेणी को समाप्त किया जा सकता है) 
  • मुख्यमंत्री 
  • राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य 
  • किसी शहर  का महापौर 
यहाँ किसी भी स्तर के पद पर आसीन रहने की अवधि अधिकतम 5 वर्ष के 2 कार्यकाल अथवा अधिकतम 10 वर्ष (जिसे भी पद पर आसीन व्यक्ति पहले पूरा कर ले) तक सीमित कर देनी चाहिए।   

इस से ये सुनिश्चित होगा की भारत को हर दो दशक के बाद नीति निर्माताओं और हर 10 साल के बाद प्रशासकों का नया समूह मिलेगा।   इस से  उच्च संवैधानिक पदों पर बैठने वाले लोगों में पर्याप्त विधायी और प्रशासनिक अनुभव होने की आवश्यक्ता पूरी हो जाएगी क्योंकि पदानुक्रम में ऊपर जाने वाले नए लोग नीचे के स्तरों से अनुभव प्राप्त करते हुए ऊपर पहुंचेंगे।   उदाहरण के लिए दस वर्ष तक महापौर रह चुका व्यक्ति किसी ऐसे अन्य व्यक्ति से बेहतर राज्य विधानमंडल सदस्य बनेगा जिसे इसी तरह का कोई अनुभव प्राप्त नहीं है।   और जब तक वह व्यक्ति मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री के स्तर तक पहुंचेगा, उसे सरकारें चलाने की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो चुकी होगी।   यह प्रणाली भारत के राजनीतिक ढांचे में सक्षम लोगों की प्रविष्टी और उनकी बढ़त सुनिश्चित करेगी और साथ-साथ नियमित रूप से अक्षम और भ्रष्ट लोगों को बाहर करती रहेगी।