जय बोलो बईमान की !

जय बोलो बेईमान की

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
जय बोलो बेईमान की

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !



प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !



महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !



डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !



दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !



चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !



वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !



खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !



बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !



मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !



न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !



पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !



नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !


प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !



महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !



डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !



दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !



चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !



वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !



खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !



बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !



मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !



न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !



पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !



नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !

एक कट्टर इंसान ना मिला

हिन्दुस्तान भी मिला, पकिस्तान भी मिला
कट्टर हिन्दू भी मिला, कट्टर मुसलमान भी मिला
ग़म मन में बस एक यही है दोस्तों,
इस जहाँ में एक कट्टर इंसान ना मिला
खून दंगे, लाठी गोली हर जगह मिले,
पर कही मन की शान्ति का पैगाम ना मिला
अहम् का नशा, फिर बहम का नशा
पर सत्य में डुबो दे ऐसा जाम ना मिला
राम और रहीम तो कई जगह मिले
पर सबको साधता एक भगवान् ना मिला
खुदा भी रो रहा है बट बट के देख लो
उसे इंसान से जहां में, सही मान ना मिला
मजहब के नाम तो पल भर में रख दिए
क्यों इंसान के धर्म का कोई नाम ना मिला
ग़म बस मन में एक यही है दोस्तों
इस जहाँ में एक कट्टर इंसान ना मिला
इस जहाँ में एक कट्टर इंसान ना मिला

भारत माता

भारत माता अब गणतंत्र दान दो
सोए देश को एक नई पहचान दो

नंगों को कपड़ा, भूखों को अन्न दो
कुटिल,कामियों को बुद्धि दान दो

भ्रष्ट मति को सद्भावना ज्ञान दो
हमारा खोया सम्मान पुनर्दान दो

मरती स्वतंत्रता को जीवनदान दो
इस नवयुग को स्वाभिमान दान दो

सच्चे इतिहास को स्थान-दान दो
भारतवासी को गौरव-मणि दान दो

भूल चुके जो अस्तित्व संस्कृति का
उनको गणतंत्र का नया विधान दो

दुर्मति का मिटा नामोनिशान दो
भारत माता फिर-से तिरंगा तान दो..............!!!

इस बार हमें सत्य-अहिंसा, शान दो
याद करे विश्व, ऐसा हमको ज्ञान दो

धनलोलुपों को करनी का इनाम दो
भारत माता अब गणतंत्र दान दो….।।

पिज्जा बर्गर-बेरोजगारी-भ्रष्टाचार

जिन उद्देश्यों को लेकर आजादी की लड़ाई हमारे पूर्वजों ने लड़ी थी। अपना खून बहाया था। माताओं ने अपने जवान बेटों का बलिदान दिया था। स्त्रियों ने अपने सुहाग एवं बच्चों ने अपने सरपरस्तों को खोया था। क्या वह उद्देश्य पूरे हो रहे हैं? गरीबों ने अपने राज में जिस सुख की रोटी के सपने देखे थे क्या वह उन्हे मिल रही है? समाज में समानता के सपने देखे गए थे, क्या वे पूरे हो रहे हैं?क्या हमारे राजनेता गरीबों को सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं? क्या हमारे बच्चों को समान शिक्षा मिल पा रही है? क्या सभी को रोजगार के साधन उपलब्ध हो पा रहे हैं? क्या हम शांति से सुख के साथ जीवन बसर कर पा रहे हैं? क्या भूख से मौतें होना बंद हो गयी है?
आज जब इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं तो हमें एक ही जवाब मिलता है “नहीं”। तो हम और हमारा लोकतंत्र, हमारे नेता इन 63 वर्षों में क्या कर रहे थे? यह एक यक्ष प्रश्न सा हमारे सामने खड़ा हो जाता है। जिसका जवाब देने को कोई भी तैयार नहीं  है। देश में अमीरों के साथ गरीबों की संख्या भी बढती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है धनी और भी धनी होता जा रहा है। देश में जो भी नीतियाँ या योजनाएं गरीबों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से बनाई जाती हैं, उन्हे अमीर लोग या उनके दलाल हाईजैक कर लेते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गांधी ने इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार किया था कि योजनाओं के बजट का सिर्फ़ 15% ही आम लोगों तक पहुंचता है। बाकी का 85% सिस्टम की भेंट चढ जाता है। यह सिस्टम नहीं हुआ सुरसा का मुंह हो गया। जो कि दिनों दिन बढते ही जा रहा है। 
63 वर्षों में एक भी दिन ऐसा नहीं आया,जिस दिन सरकार ने कहा हो किमंहगाई कम हो गई है। मध्यम वर्ग में भी अब दो वर्ग बन गए हैं, निम्न मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग। सबसे ज्यादा निम्न मध्यम वर्ग पिस रहा है। जो कि न घर का रहा न घाट का। सरकार की किसी योजना में उसका उल्लेख नहीं है। गरीबी रेखा में इसलिए नहीं है कि उसने कुछ कमा धमा कर टीवी, फ़्रिज, मोबाईल, एवं पक्का घर बना लिया है। अमीर इसलिए नहीं है कि उसके पास अकूत धन नहीं है। निम्न मध्यम वर्ग की कमाई बिजली का बिल, पानी का बिल, राशन का बिल, फ़ोन का बिल,मोटर साईकिल का पैट्रोल, बच्चों की बीमारी और शिक्षा में ही चली जाती है। उसके पास बाद में जहर खाने के भी पैसे नहीं बचते। अगर किश्तों में सामान मिलने की योजना नहीं होती तो वह कुछ भी सामान नहीं खरीद पाता।
एक तरफ़ लोग भूख से मर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ नेता-अधिकारी एवं मठाधीशों का गठजोड़ चांदी काट रहा है। मंहगी से मंहगी गाड़ियों में सवार होकर कानून को धता बता रहा है।गरीबों के वोट से बनने वाले सांसद और विधायक गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, एक बार जीतने के बाद उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है कभी दुबारा झांकने भी नहीं जाते। बस उन्हे तो अपने कमीशन से मतलब है। जब विधायकों और सांसदो को सुविधा देने का बिल सदन में लाया जाता है तो पक्ष विपक्ष सभी उसे एक मत से पारित कर देते हैं, और जब किसान, बेरोजगारों को सुविधा देने का बिल लाया जाता है तो उस पर ये एक  मत नहीं होते। गरीबों की ही भूख के साथ खिलवाड़ क्यों होता है?
एक सर्वे के अनुसार भारत में 25 हजार लोग ऐसे हैं जो कि 2 करोड़ रुपयों की लक्जरी गाड़ियों में चलते हैं। 306 सांसद करोड़पति हैं। अब इस स्थिति में गरीबों का कल्याण कहां से होगा? एक मेडिकल कौंसिल का अध्यक्ष केतन देसाई पकड़ा जाता है,उसके पास ढाई हजार करोड़ नगद एवं डेढ क्विंटल सोना बरामद होता है। एक प्रशासनिक अधिकारी बाबुलाल के पास 400 करोड़ की सम्पत्ति बरामत होती है, एक उपयंत्री के यहां छापा मारा जाता है तो 2करोड़ रुपए की सम्पत्ति बरामद होती है। एक मधुकोड़ा पकड़ा जाता है तो 4000 करोड़ रुपये का घोटाला सामने आता है। मुम्बई के एक बैंक में कोड़ा ने लगभग 600करोड़ से उपर नगदी जमा की थी। यहां आप किसी बैंक में 50 हजार रुपया जमा करने जाते हैं तो आपको बताना पड़ता है कि कहां से लेकर आए हैं?
दिनों दिन बेरोजगारों की संख्या बढते जा रही है। औद्योगिकरण ने परम्परागत उद्योगोँ का सत्यानाश कर दिया। बड़ी मशीनों के चलते परम्परागत रुप से काम करने वाले लोग बेरोजगार होकर गरीबी से जुझ रहे हैं। उन्हे एक जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं, यहां टीवी पर पिज्जा और बर्गर के विज्ञापान दिखाए जाते हैं, मिस पालमपुर डेयरी मिल्क का चाकलेट खा रही है और गरीबके बच्चे एक रोटी के लिए तरस रहे हैं।भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितना काला धन होगा, नेता अधिकारियों एवं मठाधीशों की तिजोरी में। जिस दिन यह काला धन इनके तिजोरियों से निकल कर राष्ट्र के विकास में काम आएगा। समानता का राज होगा।सभी के बच्चे समान शिक्षा पाएंगें। सभी को समान अधिकार होगा,जिस दिन वोट नहीं खरीदे जाएंगे।उसी दिन सही मायने में सच्ची आजादी इस देश को मिलेगी और देश की आजादी के लिए जीवनदान देने वालों की आत्मा को शांति मिलेगी।

आइये, नई पीढ़ी को ही बदल दें!


फिजां में हवा गरम है। अन्ना आरएसएस के आदमी हैं, दिग्विजय की जुबान ये कहते थकती नहीं। मोहन भागवत भी बीच में कूद पड़े हैं। अरविंद केजरीवाल भी बोल पड़े कि आरएसएस अन्ना के आंदोलन का क्रेडिट न ले।
अगर उन्हें क्रेडिट ही लेना है तो वो गुजरात का क्रेडिट ले। इस बीच खबर ये भी है कि हिसार में कांग्रेस के उम्मीदवार को हराने के लिए अन्ना के सिपाहियों ने कमर कस ली है।
खुले तौर पर कहा जा रहा है कि भाई अगर हमारा समर्थन चाहिए तो जन लोकपाल का समर्थन कीजिए। कांग्रेस के लिए अगली मुसीबत उत्तर प्रदेश में आने वाली है। वहां भी अन्ना की टीम कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी है।
लोग कहने भी लगे हैं कि कांग्रेस के लिए दो यूपी हैं। एक लोकसभा चुनावों के ठीक बाद का यूपी जब लोग कहने लगे थे कि बीस साल बाद कांग्रेस की किस्मत यूपी में चमकने वाली है। और एक अन्ना के अनशन की यूपी।
अब वहां कांग्रेस के खेमे में मुर्दनी छाती दिख रही है। लेकिन पिछले दिनों जब मैं यूपी में था तो हवा कुछ बदली-बदली नजर आई।
ऐसे में एक बार फिर दिग्विजय सिंह एक्टिव हैं। अन्ना को आरएसएस का मुखौटा बताने की कवायद तेज है। बिलकुल उसी तरह से जैसे कि जंतर-मंतर के फौरन बाद। तब कहा गया था कि आरएसएस के वरिष्ठ नेता मंच पर बैठे थे और उमा भारती भी शिरकत करने गईं।
मंच पर हिंदुस्तान के नक्शे पर देवी रूपी भारत माता की तस्वीर को सीधे आरएसएस का बता दिया गया। मंच से वंदे मातरम के नारे पर आपत्तियां दर्ज कराई गईं। कहा गया कि ये नारे बंकिम चंद्र के उपन्यास का हिस्सा हैं जो सांप्रदायिक माहौल में लगाए गए थे।
अरुंधति राय और रामचंद्र गुहा को पूरे आंदोलन में सांप्रदायिकता की बू आई थी। अरुंधति ने सीधे ही कह दिया था कि अब भारतमाता की जय, वंदेमातरम और जय हिंद कहकर चुप करा दिया जाएगा।
गुहा ने जेपी आंदोलन से तुलना करते हुए कहा था कि कैसे जेपी आंदोलन का सहारा लेकर आरएसएस ने अपने को सार्थक बना दिया था और कैसे उसकी आड़ में अपने को मजबूत किया था। और अब यही हाल अन्ना के बहाने होगा।
महेश भट्ट जैसे फिल्मकार, शहला हाशमी जैसी समाजसेविका और के. एन. पाणिक्कर जैसे इतिहासकार ने प्रेस कॉन्फ्रेस करके अन्ना के अनशन को संविधान के खिलाफ बताने की कोशिश की।
कुछ लोग तो ये भी कह गये कि भाई बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर का अन्ना से जुड़ाव इस बात का एक और सबूत है। रामदेव जब रामलीला मैदान पर धरने पर बैठे थे तब मंच पर साध्वी ऋतंभरा की उपस्थिति पर काफी गौर किया गया था।
ये सही है कि रामदेव के संबंध आरएसएस से रहे हैं। वो अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए आरएसएस का आशीर्वाद भी लेने गए और जब आशीर्वाद नहीं मिला तो पार्टी बनाने का फैसला फिलहाल त्याग दिया।
श्री श्री की बीजेपी से करीबी जगजाहिर है। ऐसे में आरएसएस द्वारा प्रायोजित होने के आरोप को काफी हवा मिली। तब किसी ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। लेकिन रामलीला मैदान पर अन्ना के आते ही हवा के रुख में तल्खी तब बढ़ गई जब जामा मस्जिद के शाह इमाम बुखारी ने मुसलमानों से अन्ना के अनशन में शिरकत न करने की अपील की।
आबादी के एक हिस्से को पूरी तरह से अन्ना से काटने की इस साजिश से टीम अन्ना का झटका लगा। इस झटके की भरपाई के लिये मंच के पास मुस्लिम भाइयों से रोजा तुड़वाया गया। यानी इस प्रचार को रोकने की कोशिश अन्ना कैंप से हुई कि आंदोलन न तो मुसलमान विरोधी है और न ही आरएसएस द्दारा प्रायोजित।
नुकसान हो चुका था। असगर अली इंजीनियर जैसे सुधारवादी मुसलमान भी कहीं न कहीं इसकी चपेट में आ गए। उर्दू अखबारों में तो जमकर अन्ना के आंदोलन की धज्जियां उड़ाई गईं। अब ये कहना मुश्किल है कि इसमें कितना विचारधारा के स्तर पर था और कितना सरकार के इशारे पर।
इस पूरे विवाद में दो बातें तो स्पष्ट हो गईं कि एक, सरकार पूरी तरह से बौखालाई हुई है और उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि वो इस आंदोलन को कैसे कुचले, चूंकि वो नहीं कुचल पाई इसलिए आरएसएस से जोड़ने का कुचक्र रचा गया।
क्योंकि मैं आज तक ये नहीं समझ पाया कि भारत माता की जय और वंदेमातरम का नारा लगाने वाले कैसे सांप्रदायिक हो गए। ये बात हमारे मुसलमान भाइयों को भी समझनी चाहिए। दो, जो ये नारा नहीं लगाना चाहते वो न लगाएं। किसी ने किसी को बाध्य नहीं किया है और न ही ये कहा गया कि ये आंदोलन में शामिल होने की शर्त है।
आंदोलन का मूल है भ्रष्टाचार और करप्शन से लड़ने के लिए धर्म कहां से आड़े आता है। क्योंकि भ्रष्ट अफसर, मंत्री धर्म देखकर तो घूस मांगता नहीं। तीन, ये कहा गया कि आंदोलन में आरएसएस और बीजेपी के लोग शामिल हैं इसलिए इसका बहिष्कार होना चाहिए।
अगर ये बात है तो इस भारतीय समाज का भी बहिष्कार होना चाहिये क्योंकि भारतीय समाज ने आरएसएस के स्वंयसेवकों को 1925 से पनाह दे रखी है। अपनी परिभाषा में जनांदोलन माने लोगों का आंदोलन और लोगों में वामपंथी भी होंगे और दक्षिणपंथी भी।
सीपीएम का भी कार्यकर्ता होगा और आरएसएस का भी। चार, इस देश के मुसलमानों को अब समझना होगा कि वो कब तक शाह इमाम बुखारी जैसों की सुनेंगे। क्या बुखारी से बड़ा कोई सांप्रदायिक इस देश में है? पांच, भारतीय वामपंथी बद्धिजीवियों को अपनी सोच बदलनी होगी।
ये नहीं हो सकता कि मध्य पूर्व एशिया में लोग क्रांति करें तो उसमें लोकतंत्र की जीत देखी जाए और अपने देश में जनता सड़कों पर उतरे तो उसे एक सांतवीं-पास-गंवई का फासीवाद बता दिया जाए।
छह, हमें ये फर्क करना होगा कि आंदोलन की बागडोर किन लोगो के हाथ में है और इसका मकसद क्या है। आंदोलन की अगुआई करने वाले एक भी शख्स का आरएसएस का इतिहास नहीं रहा है और अगर रहा भी है तो क्या उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का हक नही हैं?
क्या पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता हिंदू महासभा से थे इसलिए सोमनाथ चटर्जी को भी सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाए? ऐसी बेवकूफाना सोच से निजात पाने का वक्त आ गया है।
हिंदुस्तान नए समाज का निर्माण कर रहा है। कांग्रेस ने इस नए समाज को अपनाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन नये समाज को 74 साल के बुजुर्ग में अपना अक्स दिखता है, 42 साल का युवा नहीं भाता, तो क्या इस नी पीढ़ी को सलीब पर चढ़ा दें? सिर्फ इसलिए कि हवा गरम है?

मिलावट के इस दौर में असली बचा न कोय


व्यक्ति की पहचान पहले उसके नाम से बाद में उसके कार्यों से होती है। कार्यों के गुण-दोषों के ही आधार पर लम्बे समय के बाद उसकी छबि बनती एवं असावधानी से बिगड़ती भी रहती है। अर्थात् आदमी को हर पल सजग रहने की आवश्यकता रहती है। वही संस्थाओं की छवि उसकी विचारधारा और जुड़े समूह से होती है। राजनीतिक पार्टिया भी इससे अछूती नहीं है। फिर बात चाहे कांग्रेस, भाजपा, कम्यूनिष्ट, मार्कवादी, समाजवादी, बसपा या क्षेत्रीय दलों की ही क्यों न हो। सभी अपनी-अपनी विचारधारा पर चल कार्य करते है। इतिहास गवाह है जब-जब पार्टी विचारधारा का मेल व्यक्ति की अति महत्वकांक्षा से मेल नहीं खाया, तब-तब नई पार्टी का गठन या जन्म हुआ है। प्रारंभ में रही कांग्रेस, जनसंघ, कम्यूनिष्ट आदि जैसी प्रमुख पार्टिया भी आज व्यक्तियों की महत्वकांक्षा की शिकार हो नित नई राजनीतिक पार्टियों का गठन हो उदय हो रहा है। नतीजा प्रतिस्पर्धा की दौड़, सत्ता का नशा व लालच की लोलुपता में ‘‘मेरी साड़ी उसकी साड़ी से सफेद’’ की तर्ज पर अपने को पाक साफ व सामने वाले के ऊपर केवल कीचड़ उलीचने और फैंकने में ही मशगूल रहते है।
वर्तमान में आज किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी की कोई भी विचारधारा प्रदूषित होने से बच नहीं पाई है फिर चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा। इनके प्रदूषित होने के पीछे सबसे बडा सशक्त कारण कुर्सी-सत्ता पर बने रहने के लिए अपनी नीतियों से विचलित होने के कारण ही इनका जनाधार भी घटा, लेकिन लालसा तो सत्ता की ही है। बस यही से शुरू होता है सांठ-गांठ का सिलसिला अर्थात् गठबंधन का सिलसिला। ये पहले अपनी विचारधारा से गिरे अब गठबंधन के धर्म के नाम पर अपने को और भी गिरा ‘‘सत्ता के लिए कुछ भी करेगा’’ की तर्ज पर पार्टी विचारधारा को रसातल में पहुंचा रहे है। इस बुराई व पार्टी विचारधारा के प्रदूषण होने से आज कोई भी राजनीतिक पार्टी अछूती नहीं है।
घर से लेकर बाहर तक आज बड़ों का ही महत्व है इसलिए आज सभी आमजन कांग्रेस और भाजपा की ही और देखते है। दुर्भाग्य से आज दोनों ही बड़ी पार्टिया बिना गठबन्धन के केन्द्र में नहीं चल सकती। भ्रष्टाचार को ले दोनों ही राजनीतिक पार्टिया बात तो करती है लेकिन इससे खुद भी अछूती नहीं हैं?
भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी जब पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए कमर कसने की बात करते है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली भी ऐसी ही संभावनाओं की बात करते है और उसी बीच लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज्य पार्टी में एकता की बात कहती है तो ऐसा लगता है कि पार्टी के अन्दर सब कुछ ठीक नहीं है? सत्ता का छींका पास में तो है लेकिन अकेले इसकी और न दौड़े, पहले अपने में एका कर फिर सत्ता के छीके पर टूट मलाई खायें? सुषमा की कहीं गई बातों में अनेकों अर्थ न केवल चालाक कूटनीतिज्ञ उन्हीं की पार्टी के नेता निकाल समझ रहे है बल्कि जनता भी अब कुछ-कुछ समझ रही है। यहाँ चुनाव महत्वपूर्ण नहीं है? भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण नहीं है? महत्वपूर्ण अगर कुछ है तो अगले बनने वाले प्रधानमंत्री, उस पद पर काबिज होने की अति महत्वकांक्षा है? चूंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी के ही भीतर बढ़ती लोकप्रियता, दबंगाई के बढ़ते अप्रत्याशित ग्राफ ने ही पार्टी में मुंगेरीलाल के हसीन सपनों को देखना न केवल बढ़ा दिया है बल्कि उनमें एक अजब सी बैचेनी, अशांति, महत्वकांक्षा की सुनामी भी पैदा कर दी है। चूंकि भाजपा केन्द्र में सत्ता का सुख भोग चुकी है और उन्हीं की पार्टी में एवरेस्ट पर्वत की तरह के व्यक्तित्वधारी अटल बिहारी बाजपेई के कारण कई लोगों की महत्वकांक्षा पूरी नहीं हो सकी थी। अब, जब पार्टी में ऐसा करिश्माई व्यक्तित्व किसी का भी नहीं है, इसलिए सभी न-न करते हुए पूरी दम-खम के साथ प्रधानमंत्री कुर्सी की दौड़ में अपने-अपने तरीके से जोर लगाना शुरू कर दिया है।
भाजपा की हाल ही में हुई दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मनभेद-मतभेद नरेन्द्र मोदी और लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा को लेकर स्पष्टता के साथ उभरे है।
यूं तो यात्राएं, देशाटन, ज्ञानार्जन, समझ विकसित करने के लिए, समस्याओं से रूबरू होने के लिए होती है लेकिन आज यात्राऐं विशेषतः राजनीतिक यात्राओं का स्वरूप केवल स्वार्थ सिद्धी तक ही सिमट कर रह गया है। सुनने में आया है कि राजनाथ भी अपनी खोती छवि को जनता में पुनः निखारने के लिए एक यात्रा निकालने का मूड बना रहे है जो उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहेगी।
कांग्रेस में जो हैसियत सोनिया गाँधी की है वही भाजपा में संघ की है, अंतर सिर्फ इतना है कि एक सामने है दूसरा लुका-छिपा। सत्य हमेशा कड़वा होता है उसे सुनने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार पर हल्ला मचाने वाली भाजपा को यह भी बताना होगा कि उत्तराखण्ड में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते बी.पी.खण्डूरी को हटा रमेश पोखरियाल को मुख्यमंत्री बनाया था। अब पुनः खण्डूरी की ताजपोशी मुख्यमंत्री पद पर क्यों? इसी तरह कर्नाटक में जिस बेशर्मी से भाजपा को अन्ततः येदुरप्पा को खून का घूट पी हटाना पड़ा था वो भी आम जनता के सामने है।
हाल ही में उत्तर प्रदेश, इसी के बाद अगले 2-3 वर्षों में आने वाले राज्य एवं लोकसभा चुनावों की बाढ़ आने वाली है। ऐसे में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या अन्य दलों को भी अपनी चाल और चरित्र की अग्नि परीक्षा देने की घड़ी आन पड़ने वाली है। यहाँ भाजपा को शांत दिमाग से सोचना होगा कि अटल बिहारी बाजपेई के कार्यकाल से अब तक कितने घटक दल भाजपा से जुड़े या छोड़े? वक्त सभी राजनीतिक दलों के आत्मनिरीक्षण, आत्मशुद्धि, आत्म चिंतन का है।

भारत में राजनीतिक निष्क्रियता


यकीनन भारत दुनिया के सबसे अधिक जीवंत लोकतांत्रिक देशों में से एक है। पर यह दुनिया के कुछ गिने चुने देशों में से एक है जहां एक 70 वर्षीय प्रधानमंत्री एक 80 वर्षीय राष्ट्रपति और लगभग उसी उम्र के कैबिनेट सहयोगियों के साथ आम तौर पर सत्तारूढ़ होता है। इतने पर भी हम अक्सर ये पाते हैं की इनमे से कई लोगों को सरकार चलाने या संसदीय प्रक्रियाओं/परम्पराओं की बहुत कम जानकारी होती है। यही स्थिति राज्यों की है जहां उम्रदराज़ क्षत्रप सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए हुए है। इसीलिए हम एक ऐसी स्थिति से रूबरू होते है जिस में 50 से अधिक आयु वाले लोगों को भी युवा नेता कहा जाता है जबकि दुसरे देशों में इसी आयु वर्ग के राजनेता सेवानिवृत्ति की स्थिति में पहुँच चुके होते हैं। क्षमता को उम्र के साथ जोड़ने का भारतीय नजरिया, उत्ताधिकार की परंपरा और व्यक्तित्ववाद भारत में लोकतंत्र के विकास में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं।   

सभी राजनैतिक दल इस बात से सिद्धान्तिक रूप से सहमत हैं कि राजनीति में युवाओं को अधिक अवसर देने की जरूरत है। लेकिन वरिष्ठ नेता ऐसा होने में हमेशा से एक बड़ी बढ़ा साबित होते रहे हैं। इसके अलावा ज़्यादातर ये देखा गया है कि एक बार सत्ता के उच्च शिखर पर पहुँच जाने के बाद कोई भी राजनेता अपने परिजनों और मित्रों को बढ़ावा देने लगता है। उसके सत्ता से दूर होने के पश्चात उसके बेटे, बेटियां और यहाँ तक कि दामाद भी उसकी जगह हासिल कर लेते हैं। इस तरह से परिवार का नाम लेकर उन लोगों  को सत्ता के शीर्ष स्तरों पर पहुँचने का मौक़ा मिल जाता है जिन्हें विधायी और प्रशाशनिक मामलों की कोई जानकारी नहीं होती। इन अनुचित प्रवृतियों से भारतीय लोकतंत्र में युवा रक्त और नए विचारों के प्रवाह में ठहराव आ जाता है।  

इस मुद्दे का दूसरा पहलू ये है कि कुछ लोग उच्च राजनीतिक पदों पर आसीन होने के लिए अनुभवी होने को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसके पक्ष में अपने तर्क देते हैं। उनका कहना हैं कि भारत के विशाल भू-भाग और भारी विविधता के कारण नीति निर्माताओं और प्रशासकों के सामने अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा जटिल चुनौतियाँ हैं। अब सवाल ये है कि क्या कोई ऐसा रास्ता है जिस से हम उन नेताओं की पौध तैयार कर सकें जिनमे युवावस्था और अनुभव का वंचित मिश्रण हो? कुछ सुझाव इस प्रकार हैं -

1.    भारत में विधायिका दो स्तरों पर विभाजित है - संघ और राज्य।   नगर निगमों और नगर निकायों को तीसरा स्तर बनाते हुए इन सभी स्तरों पर विधायी निकायों की सदस्यता अवधि को सीमित कर देना चाहिए।   यह अवधि अधिकतम 5  वर्ष के 4  कार्यकाल अथवा कुल 20  वर्ष (जो भी सदस्य पहले पूरा कर ले) की होनी चाहिए।
 
2.     इसी तरह कार्यपालिका को भी निम्नलिखित सात स्तरों में विभाजित किया जा सकता है -
  • राष्ट्रपति 
  • उपराष्ट्रपति 
  • प्रधानमंत्री 
  • केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य (राज्य स्तर के मंत्री की श्रेणी को समाप्त किया जा सकता है) 
  • मुख्यमंत्री 
  • राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य 
  • किसी शहर  का महापौर 
यहाँ किसी भी स्तर के पद पर आसीन रहने की अवधि अधिकतम 5 वर्ष के 2 कार्यकाल अथवा अधिकतम 10 वर्ष (जिसे भी पद पर आसीन व्यक्ति पहले पूरा कर ले) तक सीमित कर देनी चाहिए।   

इस से ये सुनिश्चित होगा की भारत को हर दो दशक के बाद नीति निर्माताओं और हर 10 साल के बाद प्रशासकों का नया समूह मिलेगा।   इस से  उच्च संवैधानिक पदों पर बैठने वाले लोगों में पर्याप्त विधायी और प्रशासनिक अनुभव होने की आवश्यक्ता पूरी हो जाएगी क्योंकि पदानुक्रम में ऊपर जाने वाले नए लोग नीचे के स्तरों से अनुभव प्राप्त करते हुए ऊपर पहुंचेंगे।   उदाहरण के लिए दस वर्ष तक महापौर रह चुका व्यक्ति किसी ऐसे अन्य व्यक्ति से बेहतर राज्य विधानमंडल सदस्य बनेगा जिसे इसी तरह का कोई अनुभव प्राप्त नहीं है।   और जब तक वह व्यक्ति मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री के स्तर तक पहुंचेगा, उसे सरकारें चलाने की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो चुकी होगी।   यह प्रणाली भारत के राजनीतिक ढांचे में सक्षम लोगों की प्रविष्टी और उनकी बढ़त सुनिश्चित करेगी और साथ-साथ नियमित रूप से अक्षम और भ्रष्ट लोगों को बाहर करती रहेगी।