फिजां में हवा गरम है। अन्ना आरएसएस के आदमी हैं, दिग्विजय की जुबान ये कहते थकती नहीं। मोहन भागवत भी बीच में कूद पड़े हैं। अरविंद केजरीवाल भी बोल पड़े कि आरएसएस अन्ना के आंदोलन का क्रेडिट न ले।
अगर उन्हें क्रेडिट ही लेना है तो वो गुजरात का क्रेडिट ले। इस बीच खबर ये भी है कि हिसार में कांग्रेस के उम्मीदवार को हराने के लिए अन्ना के सिपाहियों ने कमर कस ली है।
खुले तौर पर कहा जा रहा है कि भाई अगर हमारा समर्थन चाहिए तो जन लोकपाल का समर्थन कीजिए। कांग्रेस के लिए अगली मुसीबत उत्तर प्रदेश में आने वाली है। वहां भी अन्ना की टीम कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी है।
लोग कहने भी लगे हैं कि कांग्रेस के लिए दो यूपी हैं। एक लोकसभा चुनावों के ठीक बाद का यूपी जब लोग कहने लगे थे कि बीस साल बाद कांग्रेस की किस्मत यूपी में चमकने वाली है। और एक अन्ना के अनशन की यूपी।
अब वहां कांग्रेस के खेमे में मुर्दनी छाती दिख रही है। लेकिन पिछले दिनों जब मैं यूपी में था तो हवा कुछ बदली-बदली नजर आई।
ऐसे में एक बार फिर दिग्विजय सिंह एक्टिव हैं। अन्ना को आरएसएस का मुखौटा बताने की कवायद तेज है। बिलकुल उसी तरह से जैसे कि जंतर-मंतर के फौरन बाद। तब कहा गया था कि आरएसएस के वरिष्ठ नेता मंच पर बैठे थे और उमा भारती भी शिरकत करने गईं।
मंच पर हिंदुस्तान के नक्शे पर देवी रूपी भारत माता की तस्वीर को सीधे आरएसएस का बता दिया गया। मंच से वंदे मातरम के नारे पर आपत्तियां दर्ज कराई गईं। कहा गया कि ये नारे बंकिम चंद्र के उपन्यास का हिस्सा हैं जो सांप्रदायिक माहौल में लगाए गए थे।
अरुंधति राय और रामचंद्र गुहा को पूरे आंदोलन में सांप्रदायिकता की बू आई थी। अरुंधति ने सीधे ही कह दिया था कि अब भारतमाता की जय, वंदेमातरम और जय हिंद कहकर चुप करा दिया जाएगा।
गुहा ने जेपी आंदोलन से तुलना करते हुए कहा था कि कैसे जेपी आंदोलन का सहारा लेकर आरएसएस ने अपने को सार्थक बना दिया था और कैसे उसकी आड़ में अपने को मजबूत किया था। और अब यही हाल अन्ना के बहाने होगा।
महेश भट्ट जैसे फिल्मकार, शहला हाशमी जैसी समाजसेविका और के. एन. पाणिक्कर जैसे इतिहासकार ने प्रेस कॉन्फ्रेस करके अन्ना के अनशन को संविधान के खिलाफ बताने की कोशिश की।
कुछ लोग तो ये भी कह गये कि भाई बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर का अन्ना से जुड़ाव इस बात का एक और सबूत है। रामदेव जब रामलीला मैदान पर धरने पर बैठे थे तब मंच पर साध्वी ऋतंभरा की उपस्थिति पर काफी गौर किया गया था।
ये सही है कि रामदेव के संबंध आरएसएस से रहे हैं। वो अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए आरएसएस का आशीर्वाद भी लेने गए और जब आशीर्वाद नहीं मिला तो पार्टी बनाने का फैसला फिलहाल त्याग दिया।
श्री श्री की बीजेपी से करीबी जगजाहिर है। ऐसे में आरएसएस द्वारा प्रायोजित होने के आरोप को काफी हवा मिली। तब किसी ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। लेकिन रामलीला मैदान पर अन्ना के आते ही हवा के रुख में तल्खी तब बढ़ गई जब जामा मस्जिद के शाह इमाम बुखारी ने मुसलमानों से अन्ना के अनशन में शिरकत न करने की अपील की।
आबादी के एक हिस्से को पूरी तरह से अन्ना से काटने की इस साजिश से टीम अन्ना का झटका लगा। इस झटके की भरपाई के लिये मंच के पास मुस्लिम भाइयों से रोजा तुड़वाया गया। यानी इस प्रचार को रोकने की कोशिश अन्ना कैंप से हुई कि आंदोलन न तो मुसलमान विरोधी है और न ही आरएसएस द्दारा प्रायोजित।
नुकसान हो चुका था। असगर अली इंजीनियर जैसे सुधारवादी मुसलमान भी कहीं न कहीं इसकी चपेट में आ गए। उर्दू अखबारों में तो जमकर अन्ना के आंदोलन की धज्जियां उड़ाई गईं। अब ये कहना मुश्किल है कि इसमें कितना विचारधारा के स्तर पर था और कितना सरकार के इशारे पर।
इस पूरे विवाद में दो बातें तो स्पष्ट हो गईं कि एक, सरकार पूरी तरह से बौखालाई हुई है और उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि वो इस आंदोलन को कैसे कुचले, चूंकि वो नहीं कुचल पाई इसलिए आरएसएस से जोड़ने का कुचक्र रचा गया।
क्योंकि मैं आज तक ये नहीं समझ पाया कि भारत माता की जय और वंदेमातरम का नारा लगाने वाले कैसे सांप्रदायिक हो गए। ये बात हमारे मुसलमान भाइयों को भी समझनी चाहिए। दो, जो ये नारा नहीं लगाना चाहते वो न लगाएं। किसी ने किसी को बाध्य नहीं किया है और न ही ये कहा गया कि ये आंदोलन में शामिल होने की शर्त है।
आंदोलन का मूल है भ्रष्टाचार और करप्शन से लड़ने के लिए धर्म कहां से आड़े आता है। क्योंकि भ्रष्ट अफसर, मंत्री धर्म देखकर तो घूस मांगता नहीं। तीन, ये कहा गया कि आंदोलन में आरएसएस और बीजेपी के लोग शामिल हैं इसलिए इसका बहिष्कार होना चाहिए।
अगर ये बात है तो इस भारतीय समाज का भी बहिष्कार होना चाहिये क्योंकि भारतीय समाज ने आरएसएस के स्वंयसेवकों को 1925 से पनाह दे रखी है। अपनी परिभाषा में जनांदोलन माने लोगों का आंदोलन और लोगों में वामपंथी भी होंगे और दक्षिणपंथी भी।
सीपीएम का भी कार्यकर्ता होगा और आरएसएस का भी। चार, इस देश के मुसलमानों को अब समझना होगा कि वो कब तक शाह इमाम बुखारी जैसों की सुनेंगे। क्या बुखारी से बड़ा कोई सांप्रदायिक इस देश में है? पांच, भारतीय वामपंथी बद्धिजीवियों को अपनी सोच बदलनी होगी।
ये नहीं हो सकता कि मध्य पूर्व एशिया में लोग क्रांति करें तो उसमें लोकतंत्र की जीत देखी जाए और अपने देश में जनता सड़कों पर उतरे तो उसे एक सांतवीं-पास-गंवई का फासीवाद बता दिया जाए।
छह, हमें ये फर्क करना होगा कि आंदोलन की बागडोर किन लोगो के हाथ में है और इसका मकसद क्या है। आंदोलन की अगुआई करने वाले एक भी शख्स का आरएसएस का इतिहास नहीं रहा है और अगर रहा भी है तो क्या उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का हक नही हैं?
क्या पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता हिंदू महासभा से थे इसलिए सोमनाथ चटर्जी को भी सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाए? ऐसी बेवकूफाना सोच से निजात पाने का वक्त आ गया है।
हिंदुस्तान नए समाज का निर्माण कर रहा है। कांग्रेस ने इस नए समाज को अपनाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन नये समाज को 74 साल के बुजुर्ग में अपना अक्स दिखता है, 42 साल का युवा नहीं भाता, तो क्या इस नी पीढ़ी को सलीब पर चढ़ा दें? सिर्फ इसलिए कि हवा गरम है?